रोचक जानकारी (पंखे की कहानी)


पंखे की कहानी


गर्मी के मौसम में पंखा एक आवश्यक वस्तु है। शहरों में अकसर बिजली के तरह-तरह के पंखे प्रयोग में लाये जाते हैं। गांवों में अथवा अन्य स्थानों  पर जहां बिजली नहीं है, हाथ से चलाये जाने वाले पंखों का प्रयोग होता है। हाथ के छोटे पंखों को मनुष्य स्वयं अपने हाथ से चलाता है और एक या दो व्यक्तियों को ही उससे ठीक तरह हवा मिल पाती है। कुछ पंखे बहुत बड़े और वजनी होते  हैं। लकड़ी के एक बड़े तख्ते के नीचे कपड़े लगाकर ये पंखे तैयार किए जाते हैं और उन्हें ऊपर छत से लटका दिया जाता है। इसके बाद कोई एक व्यक्ति रस्सी के सहारे इस पंखे का जोर से हिलाता है और उस पंखे को नीचे बैठने वाले अनेक व्यक्तियों को उससे हवा पर्याप्त मिलती रहती है। पुराने जमाने में राजा महाराजाओं या अन्य बड़े लोगों के यहां ऐसे ही पंखे होते थे।
सर्वप्रथम पंखे का निर्माण कब हुआ, कहना कठिन है। चीन के लोगों का यह विश्वास है कि उनके यहां ईसा से पूर्व भी पंखों का प्रचलन  था। पंखों का जो इतिहास हमें आज प्राप्त होता है, उसके अनुसार 670 ईस्वी में सर्वप्रथम जापान में पंखे का निर्माण हुआ। जापान में बने इन पंखों पर परिवार का इतिहास भी लिखा जाता था। जापानियों का यह भी विश्वास है कि मृत्यु के बाद जब व्यक्ति स्वर्ग के द्वार पर जाता है तो वहां का द्वारपाल,उस व्यक्ति से पंखे बनाने की कला के बारे में पूछता है। यदि वह पंखा बनाने में चतुर हो तो उसे स्वर्ग में अच्छा स्थान दिया जाता है। जापानियों के इस विश्वास के कारण जापान में पंखों  की निर्माण कला में काफी विकास हुआ और वहां आज भी आकर्षक पंखे बनाये जाते हैं।
दसवीं शताब्दी के बाद चीन में  भी पंखों का काफी विकास हुआ। महिलाएं जहां भी जातीं, वे अपने हाथों में पंखे  रखतीं। सत्रहवीं शताब्दी में वहां पर  हाथी दांत के भी पंखे बनाये जाने लगे। इससे पहले पंखों का निर्माण पक्षियों के परों से और लकड़ी से किया जाता था। कुछ स्थानों पर खजूर की पत्तियों से भी पंखे बनाये जाते थे। मध्यकाल में ईसाइयों ने चांदी से बने पंखों का धार्मिक कार्यों में भी उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया। इन्हें पादरी लोग अपने हाथों में रखते थे। उन दिनों पश्चिमी देशों में सामान्य व्यक्ति चमड़े के बने पंखों का प्रयोग किया करते थे।  मगर ये पंखे धार्मिक कार्यों में प्रयोग में नहीं लाये जा सकते थे। इसी तरह के चमड़े के पंखे आज भी फ्लोरेंस के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे हुए हैं। इसी प्रकार से हाथी दांत के बने पंखे हमें न्यूयार्क के  संग्रहालय में देखने को मिल सकते हैं। भारत के भी कुछ संग्रहालयों में इस प्रकार के पंखे हैं।
सत्रहवीं शताब्दी में पंखों का विकास मुख्य रूप से फ्रान्स में हुआ। पेरिस ‘पंखों का केंद्रÓ कहलाया जाने लगा। 1678 ई. में वहां पंखों का एक कारखाना भी खुला। इसके बाद 1870 ई. में पेरिस में पंखों की एक अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी भी आयोजित की गई।
मोर के पंखों से बने  पंखों का धार्मिक स्थानों में उपयोग भारत में प्राचीन समय से होता आ रहा है। मोर के पंखों से धार्मिक स्थानों की सफाई भी की  जा सकती है। मोर पंखों को मूर्ति के चारों ओर सजाने की भी परंपरा हमारे यहां काफी समय से है। भारत में पंखों की निर्माण-कला का विकास मुख्य रूप से सोलहवीं शताब्दी में  हुआ। प्रारम्भ में पक्षियों के परों से बने पंखे ही यहां अधिक  लोकप्रिय हुए। उसके बाद हाथी दांत तथा खजूर से बने पंखों की लोकप्रियता बढ़ी। हमारे यहां भी तरह-तरह की चित्रकारी और सजावट पंखों पर उतारी  जाने लगी।
आधुनिक युग, बिजली के पंखों का है। शहरों में लगभग प्रत्येक मकान, दुकान या दफ्तर में हमें बिजली के तरह-तरह के पंखे देखने को मिलते हैं। सोने, चांदी  या हाथी दांत से बने  पंखे अब केवल  संग्रहालयों तक सीमित रह गए हैं।
बिजली के पंखों का निर्माण 1890 के आसपास प्रारम्भ हुआ, लेकिन इसकी भूमिका 1821 में उस समय बन गयी, जब इंग्लैंड के एक वैज्ञानिक माइकल फैराडे ने विद्युत चुम्बकीय चक्कर (इलेक्ट्रो मैगनेटिक रोटेशन) के सिद्धान्त  की खोज की। इसके साठ वर्ष बाद 1881 में फ्रांस के लूसे गुलार्ड ने विद्युत की ए.सी.(आल्टरनेटिंग करेंट) तथा अगले वर्ष 1882 में इंग्लैंड के सेंट जार्ज तेन फॉक्स और अमेरिका टामास अल्वा एडिसन ने डी.सी. (डायरेक्ट करेंट) पद्धतियों की खोज की, जिससे बड़े-बड़े शहर विद्युत की जगमगाहट से प्रकाशित होने लगे। 1888 ईस्वी में ए.सी. करेंट के आधार पर अमेरिकी वैज्ञानिक  निकाला टेलसा ने बिजली से चलने वाली पहली मोटर बनाई और दो वर्ष बाद इंग्लैंड में डी.सी. करेंट से चलने वाली मोटर भी तैयार कर ली गयी। इसके बाद उन मोटरों पर पंख लगाकर सरलता से पंखे तैयार किये जाने लगे और उसके बाद के स्वरूप और प्रकार में तेजी से प्रगति हुई।

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