अब एससी मायावती के फायदे के लिए काम कर रहा है.


शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के सीबीआई के आरोपों को खारिज कर दिया। यह खबर आते ही एक ओर जहां मायावती ने लड्डू बांटे और अपने समर्थकों का शुक्रिया अदा किया वहीं दूसरी और ट्विटर पर लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर सवाल खड़े किये।


सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही मायावती ट्विटर ट्रेंड्स में आ गईं। एक नजर मायावती पर आई कुछ टिप्पणियों पर
Ramesh Srivats 

मायावती एससी के फायदे के लिए काम करने का दावा करती हैं, अब एससी मायावती के फायदे के लिए काम कर रहा है।
Laugh Riot

‏ब्रेकिंग न्यूजः सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मायावती के पास आय से अधिक संपत्ति नहीं है, तो फिर किसके पास है? विपाशा बसु के?
SandipK(Satyamveshi) 

मायावती लड्डू बांट रही हैं। ऐसा लग रहा है जैसे जैसे वो हमारी न्यायव्यवस्था को बता रही हों कि नेता कभी भी जेल नहीं जाते। 


नंदिता ठाकुर ‏

मायावती को आय से अधिक संपत्ति के मामले में राहत मिली है। राष्ट्रपति चुनावों की जय हो।
The UnReal Times

अब सत्ता में वापस आने के बाद मायावती सुप्रीम कोर्ट के जजों की मूर्तियां पूरे उत्तर प्रदेश में लगवायेंगी।
Guv rav3

जुलाई को मायावती ने अपने विधायकों से प्रणब के समर्थन में वोट करने के लिये कहा, अब 6 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने मायावती के खिलाफ मामले को खारिज कर दिया। सीबीआई अपना काम बखूबी कर रही है। 


Reinstall India

 भारत में भ्रष्टाचार लगभग समाप्त हो गया है। लालू और मायावती बिलकुल साफ हैं। अन्ना हजारे देश को तोड़ रहे हैं। रामदेव व्यापारी है। सोनिया जी की जय।
Rofl Indian

अखिलेश यादव के विधायकों के लिए महंगी गाड़ी खरीदने में कुछ गलत नहीं है। मायावती की पसंदीदा फिल्म 'हाथी मेरा साथी' है तो अखिलेश की पसंद 'फरारी की सवारी' है।
Bhavesh Pither

प्रधानमंत्री को पता था कि मायावती पर आरोप खारिज हो जायेंगे तभी तो उन्होंने कहा था कि भारत में भ्रष्टाचार नहीं है। 

डॉ. मनमोहन ने दिया नुस्‍खा: सोने में पैसा नहीं लगाएं लोग


भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए पीएम मनमोहन सिंह ने आम आदमी से सोना न खरीदने की अपील की है। साथ ही इन पैसों को बचत के रूप में स्थायी निवेश में लगाने पर जोर दिया है। पीएम के मुताबिक, सोने के भाव में हो रहे उतार-चढ़ाव के चलते ये धातु निवेशकों की पहली पसंद बना हुआ है, लेकिन इस दीवानगी को कम करने की जरूरत है।

मनमोहन सिंह का कहना है, हमें निवेश के बंद हो चुके दरवाजों को फिर से खोलना चाहिए। इसके जरिए ही बचत को उत्पादक निवेश में लगाया जा सकेगा। साथ ही सोने से भी लोगों का मोह घटेगा। ये सारे प्रयास निवेश में इजाफा करते हुए देश में नौकरियों की संख्या बढ़ाने में मदद करेंगे।



वित्‍त मंत्री की कुर्सी संभालने के बाद पहले इंटरव्यू में डॉ. सिंह ने बताया है कि फिलहाल उनकी नजरें पांच प्रमुख चुनौतियों पर हैं। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ को ई-मेल के जरिए भेजे जवाब में सिंह ने बताया है कि फिलहाल वित्तीय घाटे पर नियंत्रण, कर प्रणाली में स्पष्टता, म्यूचुअल फंड और बीमा उद्योग में जान फूंकना, विदेशी निवेश के लंबित प्रस्तावों को हरी झंडी देना और इंफ्रास्ट्रक्चर में तेजी से सुधार करना उनके एजेंडे में हैं। विदेशी निवेशकों को एक तरह से आश्वस्त करते हुए सिंह ने कहा कि वह लगातार निवेश के लिए बेहतर माहौल बनाते रहेंगे।

रोचक जानकारी (पंखे की कहानी)


पंखे की कहानी


गर्मी के मौसम में पंखा एक आवश्यक वस्तु है। शहरों में अकसर बिजली के तरह-तरह के पंखे प्रयोग में लाये जाते हैं। गांवों में अथवा अन्य स्थानों  पर जहां बिजली नहीं है, हाथ से चलाये जाने वाले पंखों का प्रयोग होता है। हाथ के छोटे पंखों को मनुष्य स्वयं अपने हाथ से चलाता है और एक या दो व्यक्तियों को ही उससे ठीक तरह हवा मिल पाती है। कुछ पंखे बहुत बड़े और वजनी होते  हैं। लकड़ी के एक बड़े तख्ते के नीचे कपड़े लगाकर ये पंखे तैयार किए जाते हैं और उन्हें ऊपर छत से लटका दिया जाता है। इसके बाद कोई एक व्यक्ति रस्सी के सहारे इस पंखे का जोर से हिलाता है और उस पंखे को नीचे बैठने वाले अनेक व्यक्तियों को उससे हवा पर्याप्त मिलती रहती है। पुराने जमाने में राजा महाराजाओं या अन्य बड़े लोगों के यहां ऐसे ही पंखे होते थे।
सर्वप्रथम पंखे का निर्माण कब हुआ, कहना कठिन है। चीन के लोगों का यह विश्वास है कि उनके यहां ईसा से पूर्व भी पंखों का प्रचलन  था। पंखों का जो इतिहास हमें आज प्राप्त होता है, उसके अनुसार 670 ईस्वी में सर्वप्रथम जापान में पंखे का निर्माण हुआ। जापान में बने इन पंखों पर परिवार का इतिहास भी लिखा जाता था। जापानियों का यह भी विश्वास है कि मृत्यु के बाद जब व्यक्ति स्वर्ग के द्वार पर जाता है तो वहां का द्वारपाल,उस व्यक्ति से पंखे बनाने की कला के बारे में पूछता है। यदि वह पंखा बनाने में चतुर हो तो उसे स्वर्ग में अच्छा स्थान दिया जाता है। जापानियों के इस विश्वास के कारण जापान में पंखों  की निर्माण कला में काफी विकास हुआ और वहां आज भी आकर्षक पंखे बनाये जाते हैं।
दसवीं शताब्दी के बाद चीन में  भी पंखों का काफी विकास हुआ। महिलाएं जहां भी जातीं, वे अपने हाथों में पंखे  रखतीं। सत्रहवीं शताब्दी में वहां पर  हाथी दांत के भी पंखे बनाये जाने लगे। इससे पहले पंखों का निर्माण पक्षियों के परों से और लकड़ी से किया जाता था। कुछ स्थानों पर खजूर की पत्तियों से भी पंखे बनाये जाते थे। मध्यकाल में ईसाइयों ने चांदी से बने पंखों का धार्मिक कार्यों में भी उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया। इन्हें पादरी लोग अपने हाथों में रखते थे। उन दिनों पश्चिमी देशों में सामान्य व्यक्ति चमड़े के बने पंखों का प्रयोग किया करते थे।  मगर ये पंखे धार्मिक कार्यों में प्रयोग में नहीं लाये जा सकते थे। इसी तरह के चमड़े के पंखे आज भी फ्लोरेंस के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखे हुए हैं। इसी प्रकार से हाथी दांत के बने पंखे हमें न्यूयार्क के  संग्रहालय में देखने को मिल सकते हैं। भारत के भी कुछ संग्रहालयों में इस प्रकार के पंखे हैं।
सत्रहवीं शताब्दी में पंखों का विकास मुख्य रूप से फ्रान्स में हुआ। पेरिस ‘पंखों का केंद्रÓ कहलाया जाने लगा। 1678 ई. में वहां पंखों का एक कारखाना भी खुला। इसके बाद 1870 ई. में पेरिस में पंखों की एक अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी भी आयोजित की गई।
मोर के पंखों से बने  पंखों का धार्मिक स्थानों में उपयोग भारत में प्राचीन समय से होता आ रहा है। मोर के पंखों से धार्मिक स्थानों की सफाई भी की  जा सकती है। मोर पंखों को मूर्ति के चारों ओर सजाने की भी परंपरा हमारे यहां काफी समय से है। भारत में पंखों की निर्माण-कला का विकास मुख्य रूप से सोलहवीं शताब्दी में  हुआ। प्रारम्भ में पक्षियों के परों से बने पंखे ही यहां अधिक  लोकप्रिय हुए। उसके बाद हाथी दांत तथा खजूर से बने पंखों की लोकप्रियता बढ़ी। हमारे यहां भी तरह-तरह की चित्रकारी और सजावट पंखों पर उतारी  जाने लगी।
आधुनिक युग, बिजली के पंखों का है। शहरों में लगभग प्रत्येक मकान, दुकान या दफ्तर में हमें बिजली के तरह-तरह के पंखे देखने को मिलते हैं। सोने, चांदी  या हाथी दांत से बने  पंखे अब केवल  संग्रहालयों तक सीमित रह गए हैं।
बिजली के पंखों का निर्माण 1890 के आसपास प्रारम्भ हुआ, लेकिन इसकी भूमिका 1821 में उस समय बन गयी, जब इंग्लैंड के एक वैज्ञानिक माइकल फैराडे ने विद्युत चुम्बकीय चक्कर (इलेक्ट्रो मैगनेटिक रोटेशन) के सिद्धान्त  की खोज की। इसके साठ वर्ष बाद 1881 में फ्रांस के लूसे गुलार्ड ने विद्युत की ए.सी.(आल्टरनेटिंग करेंट) तथा अगले वर्ष 1882 में इंग्लैंड के सेंट जार्ज तेन फॉक्स और अमेरिका टामास अल्वा एडिसन ने डी.सी. (डायरेक्ट करेंट) पद्धतियों की खोज की, जिससे बड़े-बड़े शहर विद्युत की जगमगाहट से प्रकाशित होने लगे। 1888 ईस्वी में ए.सी. करेंट के आधार पर अमेरिकी वैज्ञानिक  निकाला टेलसा ने बिजली से चलने वाली पहली मोटर बनाई और दो वर्ष बाद इंग्लैंड में डी.सी. करेंट से चलने वाली मोटर भी तैयार कर ली गयी। इसके बाद उन मोटरों पर पंख लगाकर सरलता से पंखे तैयार किये जाने लगे और उसके बाद के स्वरूप और प्रकार में तेजी से प्रगति हुई।

खेल-खेल में

रातभर जबरदस्त बर्फ गिरने के बाद दूसरे दिन जब सुबह हुई, तो सफेद-सफेद बर्फ पहाड़ों, पेड़ों और ढलानों पर इस प्रकार चमक रही थी, जैसे रातों-रात प्रकृति ने उन पर सफेद गिलाफ चढ़ा दिया हो। मौसम बहुत सुहावना हो रहा था। ऐसे में स्केटिंग में रुचि रखने वाले लड़के-लड़कियां रंग-बिरंगे कपड़े पहने पहाड़ी ढलानों पर फिसलने लगे। गोपाल स्केटिंग करने वालों का नेता था। उसके जीवन के कई वर्ष इन्हीं पहाड़ी ढलानों पर स्केटिंग खेलने में बीते थे। स्केटिंग पार्टी के सदस्य उल्लास से एक-दूसरे के पीछे फिसलते हुए चले जा रहे थे। गोपाल एक अच्छे स्केटर के अलावा एक प्रवीण पर्वतारोही भी था। गोपाल की पार्टी के सदस्य स्केटिंग में इतने खोए हुए थे कि आसपास मंडराते हुए खतरे को भांप न सके। अकस्मात पहाड़ के दामन में बर्फ के टुकड़े फिसल कर दूर तक चले गए। गोपाल की अनुभवी नजरों ने खतरे को महसूस किया और सहसा उसके मुख से भयानक चीख निकली, ‘अवालांच’ (बर्फ की चट्ïान का नीचे फिसलना)।
‘अवालांच’ की आवाज के साथ ही स्केटिंग के सभी खिलाडिय़ों ने पूरी शक्ति से अपने आपको ढकेल कर पहाड़ी ढलान के सुपुर्द कर दिया, ताकि वे अपने प्राण बचा सकें। गोपाल और उसके दो साथी महेश और रमेश ‘अवालांच’ की परिधि में थे। अकस्मात एक भयानक धमका हुआ। वातावरण में सफेद बर्फ के टुकड़े बिखर गए, जैसे किसी ने बर्फ की चट्टन को बारूद से उड़ा दिया हो। धमाके के साथ ही बर्फ की बड़ी चट्ïन, जो एक बस्ती को कब्रिस्तान बनाने के लिए पर्याप्त थी, गिर पड़ी और स्केटिंग के तीन खिलाडिय़ों को अपने भीतर समेट लिया। सारी घाटी में शोक की लहर दौड़ गई।
अवालांच बाद घाटी का नक्शे ही बदल चुका था। जहां थोड़ी देर पहले लोग मौसम का आनंद उठाने के लिए जमा थे वहां अब बर्फ का पहाड़ अपनी तबाहियों की कहानी सुना रहा था। अवालांच के बाद ही विभिन्न इलाकों से टेलीफोन आने लगे। उनमें स्केटिंग करने वालों के नाम पूछे जा रहे थे।
बर्फ की विशाल चट्टïन गिरने की खबर सुनते ही स्केटिंग के विशेषज्ञ और सेना के दस्ते तत्काल वहां पहुंच गए ताकि बर्फ में दबने वालों को बचाया जा सके। सेना के हेलीकाप्टर भी मदद के लिए आ पहुंचे। थोड़ी ही देर में लापता होने वाले आदमियों के नाम मालूम हो गए। उनमें स्केटिंग पार्टी के नेता गोपाल और उसके दो साथी भी थे। हेलीकाप्टर वायुमंडल में चक्कर लगा रहे थे, ताकि उन तीनों का सुराग मिल सके। असंख्य व्यक्ति बर्फ की चट्न को जगह-जगह से खोद रहे थे। देखते ही देखते मौसम खराब हो गया। रात हो रही थी, पर लापता होने वालों का अब तक कोई सुराग नहीं मिल सका। उन्हें ढूंढऩे का काम सुबह तक के लिए स्थगित कर दिया गया। इतनी सर्दी में बर्फ के अंदर •जदा रहना असंभव था। उनकी मौत की सरकारी तौर पर घोषणा भी कर दी गई।
गोपाल को जब उसे होश आया तो वह ठंडी बर्फ में दफन था। उसे विश्वास हो चला था कि वह कुछ ही क्षणों में मर जाएगा। गोपाल ने बर्फ से बाहर निकलने का प्रयत्न किया, पर उसके चारों ओर बर्फ की सख्त दीवार बाधक थी। गोपाल ने अपने मुख को कठोरता से बंद रखा, ताकि बर्फ मुख में न घुसे और सांस लेने का र ास्ता बंद न हो जाए। उसने अपने दोनों हाथ सीने से लगाए रखे, ताकि सर्दी का प्रभाव उसके दिल और फेफड़ों पर न हो। गोपाल ने अपने पैर हिलाने की चेष्ट। की। उसके दाएं पैर में चोट आने के कारण सख्त पीड़ा हो रही थी। गोपाल ने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद किया कि पैरों की बढ़ी हुई पीड़ा के कारण वह सो नहीं सकेगा। उसकी आंखें खुली रहने के बावजूद किसी चीज  को देख नहीं सकती थीं। समय की लंबी घडिय़ां बीत जाने के बाद सहसा उसके कानों में विमान की गडग़ड़ाहट सुनाई दी। उसके शरीर में शक्ति आ गई। वह अपने को हिलाने का प्रयत्न करने लगा। उसके शरीर की तपिश के कारण उसके चारों ओर की बर्फ कुछ नरम पड़ चुकी थी। वह ऊपर बढऩे का प्रयत्न करने लगा और अपने हाथ को ऊंचा करके अपनी उंगलियों से बर्फ को कुरेदने लगा। लम्बे संघर्ष के बाद जब वह निराश हो गया, तो अपने आप को दोबारा उस अंधे कुएं में गिराकर खत्म करने की सोचने लगा। अकस्मात उसका हाथ ऊपर की ओर गया, तो नरम-नरम बर्फ टूट कर उसके सिर पर गिरने लगी और सुराख से नीला-नीला आकाश नज र आने लगा।
वह खुशी से पागल हुआ जा रहा था। उसमें दोबारा दा रहने की इच्छा पैदा हुई। वह वैसे ही रुका रहा, ताकि किसी गुरने वाले से मदद मिल सके। सहायता-दल के आदमी लापता आदमियों की लाशें ढूंढ़ते-ढूंढ़ते लगभग निराश हो चले थे।
कुछ देर बाद ही सहसा किसी के चलने की आवाज  आई। गोपाल अपनी उंगली बाहर निकाल कर इशारे करने लगा। वह पीड़ा से चिल्लाने लगा और र-र से मदद के लिए चीखने-चिल्लाने लगा। अब सुराख खोदा गया, तो वह आदमी चीखा, ‘अरे गोपाल! तुम जीवित हो।’ गोपाल को तुरन्त उस गड्ढे में से निकाला गया और चिकित्सा सहायता पहुंचाई गई। गोपाल ने क्षीण आवाज  में अपने साथियों के बारे मे विचार प्रकट किया कि आसपास ही वे मौत से लड़ रहे होंगे। सहायता दल के कई व्यक्तियों ने गोपाल के बताने पर खुदाई की। खुदाई से उसके दोनों साथी बरामद तो हुए, पर वे मर चुके थे। गोपाल अस्पताल ले जाते समय बेहोश हो चुका था।

कड़वा सच


नाट प्लेस के निकट ही मासिक पत्रिका  का दफ्तर है। इस पत्रिका के सम्पादक के रूप में मेरी नियुक्ति अभी दो माह पहले ही हुई थी। आज जैसे ही दस बजे मैं ऑफिस पहुंचा, चपरासी ने मुझे एक बड़ा-सा लिफाफा थमाते हुए कहा, ‘सर! एक औरत इसे अभी-अभी देकर गई है। कहने लगी, इसे सम्पादक जी को दे देना।’
मैंने सोचा,कोई लेखिका  आई होगी और अपनी रचना देकर लौट गई। मैंने धीरे-से उस लिफाफे के मुख को फाड़कर उसके अन्दर से कागजों का एक पुलिन्दा निकाला। ज्यों ही कागज खुले, उनमें से फोटो सरक कर नीचे जा गिरी। मैंने लपक कर वह फोटो उठा लिया। जैसे ही मैंने उस फोटोग्राफ को देखा, मैं चौंक गया। यह एक  कैबरे डांसर की नृत्य मुद्रा की फोटो थी। एक पल के लिए तो मैं झेंपा, परंतु फिर उन कागजों की ओर निगाह मारी। यह एक पत्र के रूप में रचना थी। मैंने आराम से कुर्सी पर बैठकर पढऩा शुरू किया- ‘आरती’ के संपादक महोदय, जैसा कि आपने इस लिफाफे में पड़ी फोटो से अनुमान लगा लिया होगा कि मैं एक कैबरे डांसर हूं। मैं यहां के ‘नवरंग होटल’ में लगभग तीन साल से कैबरे डांस दे रही हूं। बहुत समय से एक आग-सी मेरे भीतर सुलग रही थी और उसी आग को किसी आग के दरिया में बहाने के लिए आपकी पत्रिका का सहारा लेना चाहती हूं। आशा है, आप मेरी इस दर्द-गाथा को, अपनी ‘आरती’ के पृष्ठ पर अंकित करने का कष्ट करेंगे।
‘आज से तीन वर्ष पहले मैं मुंबई की एक चाल में रहती थी। निर्धनता ने मेरे सारे परिवार को अपने खूंखार जबड़ों में जकड़ रखा था। अभी मैं दस वर्ष की ही थी कि मेरी मां ने रोटियों में बढ़ोतरी करने के लिए, किसी अमीर कारखानेदार के यहां बर्तन, सफाई और कपड़े धोने के लिए सौ रुपये महीने पर नौकरी करवा दी। आप तो जानते हो संपादक महोदय, यह उम्र तो सखियों संग खेलने-कूदने की होती है,परंतु मुझे साथी मिला कारखानेदार की जूठन का, गन्दगी का और मैल का। न जाने कैसे एक खामोशी से यह सब मैंने स्वीकार कर लिया। बापू एक फिल्म स्टूडियो में फर्नीचर आदि इधर-उधर रखने का काम करता था, परंतु इस काम के लिए प्रोड्यूसर लोग, केवल उसे दो सौ रुपये महीना देते थे,जिसमें से पचास रुपये तो खोली के किराये के रूप में उड़ जाते थे। इसी मजबूरी के लिए मेरी मां शायद मुझे सखियों की बजाय जूठे बर्तनों का साथ करवाने के लिए छोड़ आई थी। मैं सारा-सारा दिन बर्तन मांजती, फर्श साफ करती और कपड़े धोती और साथ ही दिन में कई-कई बार मालकिन की जहर-बुझी गालियों का हार भी पहनती।


संपादक जी, जाने मेरे बाल-मन पर कैसी काई-सी फैल गई कि मैंने अपने-आपको उस वातावरण-सा ढाल लिया। दिन यूं ही गुजरते गए। मैं बर्तन मांजती रही, फर्श साफ करती रही, मैले कपड़ों को कूट-कूट कर धोती रही और कभी-कभी तो लगता, जैसे इन कपड़ों की मैल के  दरिया में, मैं सारी की सारी डूबती चली जा रही हूं, जिसमें से मुझे कोई निकालने वाला दूर-दूर तक नजर नहीं आता।…
और फिर मैंने यूं ही चुपके से अपनी उम्र का चौदहवां साल पूरा कर लिया। जैसे ही पन्द्रहवें वर्ष में पांव रखा, मुझे अपनेपन से  एक लगाव-सा होता अनुभव हुआ। एक मीठी-मीठी कसक-सी उठती महसूस होने लगी। … कभी-कभी अनायास ही मैं झूठे सपनों में सोचती कि कोई उस पार से एक राजकुमार आयेगा और अपने कदमों संग चलाकर मुझे दूर-बहुत दूर  ले जाएगा।…. और कुछ दिनों बाद संपादक जी, मेरे जीवन का पहला अनुभव आता है। मैं जिस घर में काम करती थी, वहां एक मेहमान आया। राजीव नाम था उसका। वह एक चित्रकार था। हर समय न जाने क्यूं खोया-खोया रहता था। कभी-कभी तो मुझे ऐसा महसूस  होता जैसे वह जागते में  भी सो रहा हो। ऐसी अवस्था में बड़ा भला-सा लगता वह। फिर अचानक एक दिन जब मैं बाहर सेहन में धुले कपड़े तार पर डालने गई, उसने मेरे पास आकर कहा— क्या तुम मेरा मॉडल बनोगी? मैं एक पल के लिए भौंचक्की-सी रह गई। जैसे मेरे से जवाब कोसों दूर उतर गया हो।  मैं उस जवाब को पकड़े बगैर घर के भीतर भाग गयी। मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था। एक मीठी-सी सिहरन मेरे रोम में बिजली के करंट की भांति फैल गई थी। उस रात सोना चाहा, सो न सकी और फिर भोर के  अंतिम सितारे ने छुपते-छुपते मेरे होंठों से धीमे से एक हां करवा दी-मैं मॉडल बनूंगी।’
काम पर जाने से पहले मैंने आज पहली बार एक अच्छी-सी पोशाक पहनी। आगे कभी अच्छा पहनने का मन ही नहीं करता था। मैं जैसे ही कारखानेदार के यहां पहुंची, राजीव मेरी प्रतीक्षा में था। उसने मेरे पहुंचने के पहले ही मेरी मालकिन से मेरा मॉडल बनने की आज्ञा ले ली थी।
‘रचना, आज तुम्हें भागने की जरूरत नहीं। मैंने आंटी से तुम्हें मॉडल के लिए आज का दिन मांग लिया है।’ मैं एक पल तो चौंकी, परंतु फिर धीरे से मुस्करा कर हां कर दी। वह मुझे पास ही हरी-हरी घास के लॉन पर रखे कैनवास स्टैंड के पास ले गया। स्टैंड से कुछ हटकर एक स्टूल पड़ा था, उस पर बैठ जाने को कहा। मैं धीरे से उस स्टूल पर जा बैठी। उसने  जैसे  ही मेरे सिर को पोज के लिए अपने हाथों में लिया, मेरे शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गई। उसने मुस्करा  कर कहा,’ हां, बस यूं ही एक  नेचुरल-सी मुद्रा बना लो।’  और फिर संपादक महोदय, कुछ दिनों के बाद राजीव ने कैनवास से उठाकर मुझे सारा का सारा जीवित अपने-आप में समा लिया। उसने कहा था, ‘ रचना, तू ही मेरे चित्रों की दुल्हन है।’… और संपादक महोदय, मैं नहीं  जानती… सचमुच मैं आज भी नहीं जानती,… उसने उस कैनवास की दुल्हन को एक शाम के धुंधलके में सचमुच ही दुल्हन बना डाला! मुझ पर विश्वास करना संपादक जी, उस शाम के बाद मैं कई शामें लगातार रोती रही थी और एकाएक लोगों की नजरें बदलने  लगीं। उनकी एक-एक नजर मेरे शरीर को आग के शोलों की तरह जलाने लगी।
धीरे-धीरे लोगों के व्यवहार में व्यंग्य और खुला मजाक आ गया। मैं अपने-आप में जैसे सिमट गई थी। पहले तो मैं समझ नहीं पाई, परन्तु फिर धीरे-धीरे मैं सब समझ गई। मैं भागकर राजीव की बांहों से लिपटते हुए रो दी, ‘ राजू अब जल्दी से ब्याह लो मुझे, नहीं तो ये लोग जीने नहीं देंगे मुझे। मेरे पेट में तुम्हारा बच्चा…!’ और राजीव ने विश्वास दिया था-घबराओ नहीं रचना, मैं शीघ्र ही अपने मां-बाप को यहां ले आऊंगा और तुम से, अपने प्यारे मॉडल से ब्याह रचा लूंगा।’ मैं उस विश्वास की डोर से बंधी उन आने वाली सुखद घडिय़ों की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ दिनों के बाद राजीव अपने मां-बाप को लाने के लिए कहकर चला गया। मुझसे जाते-जाते कह गया, ‘मैं शीघ्र लौटूंगा  रचना!’ परंतु सम्पादक जी, वो नहीं आया। दिन महीनों का चोला पहन गये- वो नहीं आया। मैं उसके आने वाले बच्चे के लिए सारा दिन जूठे बर्तन मांजती रही, फर्श धोती रही, मैले कपड़ों को कूटती रही। समझ  नहीं पा रही थी कि क्या करूं। अपने हाथ-पैरों को देखती तो मुझे अपने-आप से नफरत होने लगती। अपने शरीर के अंग-अंग से एक सड़ांध, एक बास फूटती महसूस होती। … और फिर एक दिन उस सड़ांध ने मेरा पेट छोड़कर मेरी  बांहों  का सहारा  ले लिया। हां सम्पादक जी, राजीव के चित्रों की दुल्हन  ने राजीव की लड़की को जन्म दे दिया। कारखानेदार ने कुलटा की उपाधि देकर मुझे काम से अलग कर दिया। मां-बाप ने दुत्कारते हुए कहा, ‘जा, जिस हरामी की हरामी औलाद है, उसी के पास फेंक आ।’ नहीं जानती थी कि मैंने कहां जाना है। आकाश में चमकते सितारे किसी जासूस की भांति मेरा पीछा कर रहे थे। मेरे सामने परेशानियों का एक असीम सागर फैला था और मुझे बिना किसी पतवार के उसमें उतरना था। एक बार मन में आया कि आत्महत्या कर लूं, परंतु कैसे करती?  वह आंचल में दुबकी नन्ही  जान, जो मेरी जान पर बन आई थी,उसे कहां छोड़ती? क्या दोष था उसका? और फिर मैंने एक निश्चय  किया। ऐसा  निश्चय, जिससे एक बार तो मेरी आत्मा ने  धिक्कारा, परंतु अंत में विजयी हुई। सुबह की प्रथम किरण के साथ ही मैंने राजीव की उस मैल को,एक अनाथालय में बिना  मां-बाप का कहकर दाखिल कर दिया। सोचा, अगर  इसके भाग्य में यही जगह लिखी है तो मैं क्या करूं! और उस अनाथालय से मेरे कदम, उस बाजार को ढंढऩे  के लिए बढ़ चले, जिसे सीधे शब्दों में हमारा समाज ‘रंडी का कोठा’ कहता है,जहां पर रात के अंधेरे में न जाने और कितने राजीव अपना मुंह काला करते हैं परंतु उन्हें दिन के उजाले में कोई नहीं पूछता। वह बाजार, जहां पर मेरी तरह न जाने कितनी ‘चित्रों की दुल्हनें’ अपने जीवन के कड़वे घूंट पीते-पीते जीने का असफल प्रयास कर रही हैं। उसी बाजार का रास्ता पूछने के लिए मैंने एक रिक्शा  वाले को आवाज दी। जैसे ही मैंने उसे अपनी बात कही, वह एक बार तो हैरान-सा हुआ फिर ढिठाई से बोला,  ‘मालूम पड़ता है, नई बाई आई हो। चलो मैं तुम्हें वहां छोड़े आता हूं।’ और वह  मुझे नरक के उस द्वार पर पहुंचाने के लिए अपनी रिक्शा बड़ी तेजी से बढ़ाने लगा। शायद उसे भय था  कि शिकार रास्ते में ही निकल न जाए। जैसे ही उसने मुझे उस बाजार में उतारा,कोठों से हजारों सहमी नजरों ने  मेरा स्वागत किया।
… और उस दिन के बाद मैं ‘रचना’ से रचनाबाई बन गई। क्योंकि मैं नई-नई आयी थी, इसलिए ग्राहकों ने मेरा मोल भी और बाईयों से कहीं अधिक दिया। और मैंने हर बार अपने हर खरीदार से यही कहा, ‘ हाय-हाय कितने  बांके जवान हो तुम! आओ मुझे अपनी बांहों में भरकर चटखा दो!’ सम्पादक जी, न  जाने कितने अंधेरे कोनों में मैंने यह नाटक खेला और करती भी तो क्या? मुझे याद है ऐसे ही नाटक के एक शो में, मुझे आपके शाहर का एक सेठ बाटलीवाला मिला। उसका दिल्ली में एक होटल था। उसने जब मेरी मांसल देह को भरपूर नजर से तोला तो उसकी बांछें खिल गईं, ‘रचनाबाई, एक बात कहूं?’
‘कहो सेठ बाटलीवाला जी!’  मैंने भी एक छिनाल के अंदाज में उसकी भाषा की नकल करते हुए कहा।
‘ही-ही-ही, तुम चाहो तो जी, तुम्हें मैं अपने दिल्ली के ‘नवरंग’ होटल में  कैबरे डांसर बना सकता हूं जी!’
मैं एक पल तो आश्चर्य के समुद्र में डूब गई। फिर एकदम से बोली —’क्या सच?’
‘ही-ही-ही, और नहीं तो क्या झूठ जी! तुम्हें इसके लिए एक हजार रुपया माहवार तनख्वाह और साथ में खानो-पीनो और पहननो मुफ्त।’ उसने यह कहते-कहते मुझे अपनी गोद में बिठा लिया। शायद अब तक वह बड़ी कठिनाई से अपने-आपको रख सका था। मैंने भी उन क्षणों का पूरा लाभ उठाने के लिए उससे उसी समय लिखित रूप में अपनी नौकरी का कान्ट्रेक्ट लिखवा लिया। सोचा, इस नरक से वह नरक कुछ बेहतर ही है। हो सकता है, कभी उस निर्मोही राजीव से भी इसी बहाने मिलन हो जाए और उसे बता सूकं कि देखो तुम्हारे ‘चित्रों की दुल्हन’ कहां से कहां पहुंच गयी और तुम्हारे प्यार की निशानी तुम्हारी बच्ची, एक अनाथालय में अपनी किस्मत को रो रही है । …
परन्तु ओफ्फ! मेरी तकदीर! आज मुझे यहां आए तीन साल गुजर चुके हैं, परंतु वह यहां भी नहीं आया। सोचा, एक कोशिश और करके देख लूं। शायद वह मेरी इस दर्द-गाथा को ही पढ़ ले। इसीलिए संपादक महोदय, मैंने ये कुछ शब्द पीड़ा की देहरी पर सिर पटकते हुए आपकी पत्रिका में प्रकाशित करवाने के लिए अंकित किये हैं। हो सके तो इसे अपनी पत्रिका में  मेरे चित्र सहित प्रकाशित करके, मुझ अभागिन पर एक उपकार कर दीजिए। बहुत आभारी रहूंगी। धन्यवाद।
भवदीया,
रीटा।
मैं पढ़ रहा था और सोच रहा था— कितना कड़वा सच है यह! और मैंने बड़े ही भारीपन से अपने चपरासी को आवाज दी।
‘जी सर!’ चपरासी ने आते ही पूछा।
‘देखो ये फोटो और कागजों का पुलिंदा,कम्पोजिंग विभाग में छपने के लिए दे आओ।’ चपरासी वह फोटो और कागज लेकर चला गया और मैं धीरे से एक सर्द आह भरकर मेज पर पड़ी फाइलें देखने लगा।

गर्मी के मौसम के रोग एवं उपचार

ग्रीष्म काल के मौसम में ताप के अधिक होने से लू लगती है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य द्वारा प्रवाहित उष्मा से वातावरण का ताप इतना अधिक बढ़ जाता है कि यदि सावधानियां नहीं रखी गयी तो मनुष्य सन-बर्न या सन-स्ट्रोक के आक्रमण से बच नहीं सकता।
सूर्य का प्रभाव उन पर ज्यादा पड़ता है जिनका सीधा संपर्क सूर्य की किरणों से होता है या जो सारा दिन खेतों में काम करते हैं या टीन या खपरैल की छत वाले मकान में रहते हैं। लेकिन कुछ लोग धीरे-धीरे इसे सहने के आदी हो जाते हैं परंतु जो इसके अभ्यस्त नहीं होते यदि उनका संपर्क सूर्य की तेज किरणों से होता है तो उनके शरीर पर गुलाबी रंग के चकत्ते उभर आते हैं जिनमें खुजली भी होती है।
अधिक देर तक धूप में रहने से फफोले भी पड़ सकते हैं। इसके साथ-साथ घबराहट, सिर में दर्द, चक्कर आना, उल्टी-सी लगना आदि लक्षण देखने को मिलते हैं। अधिक पसीना निकलने से निर्जलीकरण की अवस्था भी हो सकती है तथा ज्वर की भी संभावना हो सकती है।
लू लगने पर शीतल उपचार करना चाहिए। रोगी को पूरा विश्राम कराना चाहिए। शीतल व हवादार कमरे में रखना चाहिए। रोगी को शीतल पेय देना चाहिए जैसे नीबू का रस पानी में मिलाकर देना चाहिए। आम को उबालकर उसका गूदा पूरे शरीर पर मलना चाहिए। आम का शर्बत देने से भी लाभ मिलता है। सौंफ, खरबूजे और तरबूजे का बीज, गुलाब की पंखुडिय़ां, काली मिर्च को पीसकर उसमें मिश्री या चीनी मिलाकर देने से मरीज को राहत मिलती है। यदि इससे भी आराम न मिले तो तुरंत पास के अस्पताल में ले जाना चाहिए जिससे उसकी ड्रिप वगैरह लगाकर तुरंत उपयुक्त चिकित्सा की जा सके।
जब कभी कोई व्यक्ति आग से, गर्म पानी से या उसके भाप से, किसी रसायन से, बिजली से या रेडिएशन आदि किसी कारण से भी जलता है तो उसकी तीन अवस्थाओं को ध्यान में रखकर उसकी चिकित्सा की जाती है।
प्रथमावस्था : जिसमें शरीर पर बिना किसी लाली के फफोले पड़ते हैं। उसकी त्वचा का केवल ऊपरी भाग ही प्रभाव में आता है यह प्रथमावस्था कहलाती है। द्वितीयावस्था : इसमें त्वचा का दूसरा स्तर भी प्रभाव में आ जाता है जिसके कारण शरीर पर लाली के साथ फफोले पड़ते हैं। तृतीयावस्था :इस अवस्था में त्वचा का संपूर्ण भाग जल जाता है तो इसे तृतीयावस्था कहते हैं।
जलने के तुरंत बाद शरीर के जले भाग को ठंडे पानी में आधे घंटे तक रखें जिससे ऊतकों के नष्ट होने की संभावना नहीं होती। प्रथम अवस्था में चिकित्सा की आवश्यकता नहीं रहती है।
द्वितीयावस्था : जलने पर उसे पानी से धोयें। फफोले पड़ जाने पर उसे संक्रमण रहित सुई से फोड़ दें और जली त्वचा को न हटायें। उसके ऊपर स्टेराइल गॉज से ढककर पट्टी बांध दें फिर अगले दिन  पट्टी बदल दें। इससे घाव ठीक हो जायेगा।
तृतीयावस्था : जले को साफ न करें। उसके ऊपर पाउडर छिड़क दें परंतु कोई भी दवा न दें। जितनी जल्दी हो सके रोगी को अस्पताल भेज देना चाहिए।
इसमें कुछ बातों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। जैसे इन्फेक्शन से बचना चाहिए। सभी घावों में 24 घंटों के अंदर एटीएस का इंजेक्शन दे देना चाहिए। रोगी को टब-बॉथ कराना चाहिए जो रोगी की पीड़ा को भी कम करता है और घावों को भी सुखाता है। जी वायलेट, बरनॉल या नारियल का तेल भी लगा सकते हैं। आग से जलने पर तुरंत निथरे हुए चूने के पानी में नारियल का तेल मिलाकर लगाने से लाभ मिलता है। चाय वगैरह से आप जल जायें तो तुरंत उस स्थान को ठंडे पानी से धो कर ग्लिसरीन लगा लेने से राहत मिलती है।

कैमरे के सामने केमिस्ट्री अलग होती है शाहिद कपूर

शाहिद कपूर का करिअर काफी डांवाडोल चल रहा है। उनकी एक फिल्म सफल होती है, तो उसके बाद उनकी कई फिल्में एक साथ असफल हो जाती हैं। ”मौसम” की असफलता के बाद अब उनकी फिल्म ‘तेरी मेरी कहानी’ प्रदर्शित हाई  है, जिसको लेकर वह काफी उत्साहित हैं। उनका दावा है कि यह फिल्म उनके करिअर को एक नई दिशा देने वाली है।
आप तो हर फिल्म के साथ पूरी तरह से जुड़े हुए नजर आते हैं। इसके बावजूद फिल्म  ‘मौसम’  ने बाक्स आफिस पर पानी भी नहीं मांगा?
-बिलकुल सही कहा आपने! मैं ‘मौसम’ के साथ भी पूरी तरह से जुड़ा हुआ था, पर फिल्म कहां गड़बड़ हो गयी, पता ही नहीं चला। मैं अपने काम को लेकर बहुत पैशिनेट हूं। कई बार ऐसा हुआ है कि मैंने फिल्म में काम करते हुए काफी इंज्वॉय किया। पर लोगों ने उसे पसंद ही नहीं किया। फिर भी मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं। ईश्वर ने मुझे बहुत कुछ दिया है। मेहनत करना मेेरे हाथ में है।  बाकी दर्शकों की मर्जी। पर मुझे उम्मीद है कि दर्शकों को फिल्म ‘तेरी मेरी कहानी’ जरूर पसंद आएगी।
फिल्म  ‘तेरी मेरी कहानी’  को लेकर क्या कहना चाहेंगे?
-यह एक प्रेम कहानी प्रधान मनोरंजक हास्य फिल्म है। इसमें हल्की-फुल्की कॉमेडी है। यह तीन अलग-अलग पीरियड के तीन अलग-अलग पात्रों की पे्रम कहानी हैं।
जब आपको पता चला कि इस फिल्म में तीन अलग-अलग पीरियड के पात्र हंै। तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी ?
-कुणाल कोहली ने जब मुझसे इस फिल्म को लेकर चर्चा की थी, उस वक्त उनके दिमाग में एक छोटा सा विचार था। हमारे यहां शादी को सात जन्मों का बंधन माना जाता है यानी कि सात अलग-अलग जन्मों में भी वह दोनों पति-पत्नी रहेंगे। इसी बात को लेकर कुणाल कोहली ने सोचा क्यों ना हम एक कहानी बताएं, जिसमें कम से कम तीन अलग-अलग पीरियड हों और पीरियड के अनुसार अलग-अलग कल्चर, अलग अलग पृष्ठभूमि में हम दिखाएं। आजादी से पहले वक्त समाज की भी स्थितियां काफी गंभीर थीं। पर हमारा जो 1910 का जावेद का पात्र है, वह गंभीर किस्म का नहीं है। उसे थोड़ा सा अलग पेश किया है। 1960 काफी रोचक पीरियड था। देव साहब का जलवा था। ‘तीसरी मंजिल’ सहित देव आनंद की सभी फिल्में बहुत रोचक हुआ करती थीं। तो मुझे लगा कि उस काल की हमारी फिल्म का यह भाग काफी रोचक और अलग होगा। इसके बाद 2012 का काल है, जो कि वर्तमान समय की बात है। तो यह तीनों रोचक पे्रम कहानियंा हैं।  एक तरह से हमने एक ही फिल्म में तीन किरदार निभाए हैं। यह सिर्फ मेरे लिए ही नहीं ,बल्कि प्रियंका चोपड़ा के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती थी।
फिल्म ‘तेरी मेरी कहानी’ में आपका किरदार पुनर्जन्म पर आधारित है और आप पुनर्जन्म वाली फिल्म नहीं करना चाहते थे?
-यह सच है कि मैं पुनर्जन्म पर आधारित फिल्में करने में कोई रुचि नहीं रखता। पर कुणाल कोहली ने मुझे आश्वस्त किया कि यह एक रोमांटिक कॉमेडी वाली फिल्म है।
जावेद कादरी का किरदार निभाना  कितना आसान रहा ?
-मंैने फिल्म ‘ फना ‘ में आमिर खान को शायरी पढ़ते हुए देखा था और जब कुणाल कोहली ने मुझसे कहा कि मुझे जावेद के किरदार को निभाते हुए शायरी पढऩी है, तो मुझे आमिर खान की याद आ गयी और मैं काफी नर्वस हो गया था। तब कुणाल ने मुझसे कहा कि वह इस किरदार को यथार्थपरक तरीके से निभाने के लिए आसान रास्ता खोजेंगे। मेरा मानना है कि 1910 का मेरा जावेद का किरदार ठंडे दिमाग का होते हुए भी बहुत ही घटिया पात्र है। क्योंकि उस काल में हर कोई बहुत अच्छे तरीके से व्यवहार किया करता था।  पर मुझे इस किरदार को निभाने में मजा आया। क्योंकि वह शायरी करते हुए, जो चाहता था, वह कर लेता था। वह किसी भी लड़की के साथ छेड़खानी भी कर लेता है। जो कि मैं अपनी निजी जिंदगी में कभी नहीं कर सकता और न ही करना चाहूंगा। फिर मैंने अपने अब तक के करिअर में पहली बार किसी मुस्लिम पात्र को निभाया है।
इस फिल्म में आपकी जोड़ी प्रियंका चोपड़ा के साथ है। जबकि आप तो प्रियंका के साथ काम ही नहीं करना चाहते थे ?
-लेकिन इस फिल्म के पात्र में प्रियंका चोपड़ा ही उपयुक्त थी। मैं तो पहले से ही इस फिल्म के साथ जुड़ चुका था। कुणाल कोहली को लगा कि इस किरदार में प्रियंका चोपड़ा से बेहतर कोई कलाकार हो ही नहीं सकता, तो उन्होंने प्रियंका को इस फिल्म के साथ जोड़ा। फिल्म की शूटिंग के दौरान हमारे बीच कभी कोई असहजता नहीं रही। हम दोनों ने एक अच्छे प्रोफेशनल कलाकार की तरह काम किया। वैसे पहले मैंने उनके साथ फिल्म ‘कमीने’ की थी, जिसमें उनके साथ मेरे सिर्फ आठ सीन ही थे।
प्रियंका चोपड़ा के साथ यह दूसरी फिल्म है। इस बार क्या अनुभव रहे?
-जब मैंने फिल्म ‘कमीने’ में प्रियंका चोपड़ा के साथ काम किया था, तब फिल्म की शूटिंग से पहले हम एक दूसरे को जानते नहीं थे। लेकिन फिल्म ‘ कमीने ‘ में हमारी केमिस्ट्री बहुत जबरदस्त रही। क्योंकि कैमरे के सामने पहुंचते ही हम दोनों अपने-अपने चरित्रों में होते थे। ‘कमीने’ एक पूरी तरह से डार्क फिल्म थी जबकि  ‘तेरी मेरी कहानी’ ठीक उसके विपरीत पूरी तरह से कमर्शियल फिल्म है। यह अलग तरह की फिल्म है। जब फिल्म का विषय अलग हो, चरित्र अलग हों और निर्देशक अलग हो, तो दो कलाकारों में भी फर्क नजर आता ही है।
आपको नहीं लगता कि आपको भी हार्ड कोर एक्शन फिल्म करनी चाहिए ?
-मैं हार्ड कोर एक्शन फिल्म कर रहा हूं। पर अभी उस पर बात नहीं कर सकता। लेकिन इतना दावा है कि ‘ तेरी मेरी कहानी ‘ के बाद मेरी जो फिल्में प्रदर्शित होने वाली हैं, उनमें एक हार्ड कोर एक्शन फिल्म भी है।